हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला बहुत महत्वपूर्ण है और इसमें बड़े विस्तार से कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की गई है। बहरहाल अदालत का फ़ैसला आने के बाद इसके पूरे ब्योरे की जानकारी हासिल किए बिना ही कुछ कट्टरपंथी तत्वों को एसा लगने लगा कि अब यही मौक़ा है कि मुसलमानों के पर्सनल ला पर हमला कर दिया जाए और समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में क़दम उठाया जाए। कुछ टीवी चैनलों ने हलाला के मुद्दे पर बहस शुरू कर दी और कुछ लेखों में भी कहा गया कि अब इस प्रकार की सभी रीतियों को कटहरे में खड़ा कर दिया जाए। मज़े की बात तो यह है कि अदालत के फ़ैसले पर बेगाने की शादी में अब्दुल्लाह की तरह दीवानगी दिखाने में वह संगठन सबसे आगे हैं जिन पर इस प्रकार की अत्यंत भयानक कुरीतियों के समर्थन का आरोप है। यही नहीं यह संगठन इतने भयानक हैं कि वह अपने समाज की इन कुरीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले की हत्या तक कर देते हैं। इस क्रम में नियोग प्रथा का नाम लिया जा सकता है।
नियोग प्रथा मनुस्मृति प्रथा है जिसमें कहा गया है कि नियोग पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए। इसी विधि द्वारा महाभारत में वेद व्यास के नियोग से अम्बिका तथा अम्बालिका को क्रमशः धृतराष्ट्र तथा पाण्डु उत्पन्न हुये थे।
वेद में नियोग के आधार पर एक स्त्री को ग्यारह तक पति रखने और उन से दस संतान पैदा करने की छूट दी गई है. नियोग किन-किन हालतों में किया जाना चाहिए, इसके बारे में मनु ने इस प्रकार कहा है :
विवाहिता स्त्री का विवाहित पति यदि धर्म के अर्थ परदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या और कीर्ति के लिए गया हो तो छ: और धनादि कामना के लिए गया हो तो तीन वर्ष तक बाट देखने के पश्चात् नियोग करके संत्तान उत्पत्ति कर ले. जब विवाहित पति आवे तब नियुक्त छूट जावे
नियोग प्रथा के बारे में पुस्तक लिखने वाले उपन्यासकार पेरुमल मुरुगन की हत्या तक कर दी गई। मुरुगन ने उपन्यास लिखा तो कट्टरपंथी हिंदू संगठनों में हाहाकार मच गया। मुरुगन का मामला अदालत में पहुंचा तो अंत में मद्रास हाई कोर्ट ने पेरुमल मुरुगन के ह़क में फ़ैसला सुनाया। इस तमिल लेखक के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग करती जनहित याचिकाओं को खारिज करते हुए अदालत ने नमक्कल जिला प्रशासन को भी फटकार लगाई जिसने मुरुगन पर अपनी किताब को वापस लेने का दबाव बनाया था।
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पेरुमल मुरुगन का उपन्यास ‘मधोरूबगन‘ है। यह उपन्यास नमक्कल जिले के थिरूचेंगोड़े शहर के अर्धनारीश्वर मंदिर में होने वाले धार्मिक उत्सव ‘नियोग‘ के बारे में बात करता है। उपन्यास की निःसंतान विवाहित नायिका अपने पति की मर्जी के बिना भी नियोग नामक धार्मिक प्रथा को अपनाकर संतान पैदा करने का फैसला करती है. स्त्री निर्णय की स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करती इस किताब का कट्टरपंथी हिंदुओं ने कड़ा विरोध किया. इसके बाद मुरुगन ने लेखन से संन्यास लेने का ऐलान कर दिया था. अपने फेसबुक पेज उन्होंने लिखा, ‘मर गया पेरुमल मुरुगन. वह ईश्वर नहीं कि दोबारा आए. अब वह पी मुरुगन है, बस एक शिक्षक. उसे अकेला छोड़ दो।
लेकिन उन्हें परेशान कर रहे कट्टरपंथी तत्वों को इससे भी संतोष नहीं हुआ। तमिलनाडु के नमक्कल जिले में रहने वाले इस लेखक को सामाजिक रूप से अलग-थलग करने की कोशिशें हुईं। उनके दोस्तों और रिश्तेदारों को धमकाया गया. इस सबसे परेशान होकर नमक्कल के सरकारी डिग्री कॉलेज में पढ़ाने वाले पेरुमल और उनकी पत्नी ने अपने तबादले की अर्जी दे दी।
उपन्यासकार ने इस बात की वकालत की थी कि नियोग के लिए पुरुष के चयन में महिला की मर्ज़ी चलनी चाहिए। उपन्यास में टिप्पणी की गई कि वे चाहते हैं कि बच्चा किससे पैदा करना है, यह तय करने का हक सिर्फ पुरुष यानी पिता का है। कोई स्त्री यह कैसे तय कर सकती है कि वह किस पुरुष से बच्चा पैदा करना चाहती है?
सवाल कई हैं. पहला, क्या विरोध करने वाले नियोग के परंपरागत रूप को तोड़ने से खफा हैं? मतलब कि क्या नाराजगी इस बात से है कि स्त्री ने स्वयं नियोग के लिए पुरुष चुन लिया। वे चाहते हैं कि बच्चा किससे पैदा करना है, यह तय करने का हक सिर्फ पुरुष यानी पिता का है। कोई स्त्री यह कैसे तय कर सकती है कि वह किस पुरुष से बच्चा पैदा करना चाहती है? क्या यह पुरुष के सदियों पुराने अधिकार के छिनने का मातम है?
या फिर वे नियोग को ही बुरा मानते हैं? यदि वे नियोग को बुरा मान रहे हैं तो वे अपनी पूरी हिंदू संस्कृति और परंपरा को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। क्या वे सच में ऐसा करना चाहते हैं? चाह सकते हैं?
तीसरा, वे संस्कृति और सभ्यता के अभिन्न अंग के रूप में तो नियोग को पूज्य मानते हैं, लेकिन व्यवहार में उसे घटित होते हुए नहीं देख सकते। यह ठीक वैसा ही है कि किसी बिनब्याही मां की फिल्म तो लोग देख सकते हैं, नायिका के विपरीत हालात पर इमोशनल भी हो जाते हैं, लेकिन व्यवहार में बिनब्याही मां की कल्पना भी नहीं कर सकते। हलाला पर शोर मचाने वालों को ज़र एक नज़र नियोग पर भी डाल लेना चाहिए। (सोर्स)
लेकिन उन्हें परेशान कर रहे कट्टरपंथी तत्वों को इससे भी संतोष नहीं हुआ। तमिलनाडु के नमक्कल जिले में रहने वाले इस लेखक को सामाजिक रूप से अलग-थलग करने की कोशिशें हुईं। उनके दोस्तों और रिश्तेदारों को धमकाया गया. इस सबसे परेशान होकर नमक्कल के सरकारी डिग्री कॉलेज में पढ़ाने वाले पेरुमल और उनकी पत्नी ने अपने तबादले की अर्जी दे दी।
उपन्यासकार ने इस बात की वकालत की थी कि नियोग के लिए पुरुष के चयन में महिला की मर्ज़ी चलनी चाहिए। उपन्यास में टिप्पणी की गई कि वे चाहते हैं कि बच्चा किससे पैदा करना है, यह तय करने का हक सिर्फ पुरुष यानी पिता का है। कोई स्त्री यह कैसे तय कर सकती है कि वह किस पुरुष से बच्चा पैदा करना चाहती है?
सवाल कई हैं. पहला, क्या विरोध करने वाले नियोग के परंपरागत रूप को तोड़ने से खफा हैं? मतलब कि क्या नाराजगी इस बात से है कि स्त्री ने स्वयं नियोग के लिए पुरुष चुन लिया। वे चाहते हैं कि बच्चा किससे पैदा करना है, यह तय करने का हक सिर्फ पुरुष यानी पिता का है। कोई स्त्री यह कैसे तय कर सकती है कि वह किस पुरुष से बच्चा पैदा करना चाहती है? क्या यह पुरुष के सदियों पुराने अधिकार के छिनने का मातम है?
या फिर वे नियोग को ही बुरा मानते हैं? यदि वे नियोग को बुरा मान रहे हैं तो वे अपनी पूरी हिंदू संस्कृति और परंपरा को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। क्या वे सच में ऐसा करना चाहते हैं? चाह सकते हैं?
तीसरा, वे संस्कृति और सभ्यता के अभिन्न अंग के रूप में तो नियोग को पूज्य मानते हैं, लेकिन व्यवहार में उसे घटित होते हुए नहीं देख सकते। यह ठीक वैसा ही है कि किसी बिनब्याही मां की फिल्म तो लोग देख सकते हैं, नायिका के विपरीत हालात पर इमोशनल भी हो जाते हैं, लेकिन व्यवहार में बिनब्याही मां की कल्पना भी नहीं कर सकते। हलाला पर शोर मचाने वालों को ज़र एक नज़र नियोग पर भी डाल लेना चाहिए। (सोर्स)
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