जब होश संभाला औऱ सवाल-जवाब करने लगी तब मेरे घर में सामने के कमरे में लगी बड़ी सी फ़ोटो से परिचय कराया मम्मी-पापा ने कि ये अपने बाबासाहेब हैं जिनकी वजह से हम अमानवीय पीड़ा से मुक्त हुए हैं, हम पढ़-लिख पा रहे, हमें क़ानूनन सारे हक़ मिले और इंसान माने जाने लगें हैं। बड़े-बूढ़ों से रोंगटे खड़े कर देने वाले किस्से सुनती हूँ,पढ़ती हूँ, अत्याचार और अमानवीयता से भरा बेहद बर्बर इतिहास समझती हूँ, किस तरह उन्होंने संघर्ष किया, दलितों-पिछड़ों-वंचितों के हक़ की लड़ाई लड़ी.........अब वर्तमान देखती हूँ तो एक दलित के रूप में उनका आभार व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते, मौन होता है, बस उन्हें देखती रह जाती हूँ। बड़े होने के साथ-साथ जैसे-जैसे अंबेडकर को पढ़ा-जाना तो समझ आया कि वो केवल दलितों-पिछड़ों के उद्धारक ही नहीं बल्कि स्त्री मुक्तिदाता भी हैं, समानतावादी, न्यायवादी, मानववादी भी हैं।
एक महिला के रूप में अपने अधिकारों को देखती हूँ तो लगता है कि उनके बराबर भारत में फेमिनिस्ट नहीं है। पढ़ने-लिखने से लेकर सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक बराबरी के हक़, हर जगह समान अवसर, विवाह से लेकर तलाक़, समान वेतन, प्रसूति अवकाश, गर्भनिरोधक प्रयोग करने का अधिकार, नौकरी करने का अधिकार, संपत्ति में उत्तराधिकार दिया जाना जैसे तमाम हक उनके प्रयास है। भारत की हर महिला को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। दलित और महिला होने से परे एक इंसान के रूप में भी देखती हूँ तो मेरी मानववाद की संकल्पना उनसे शुरू होकर उनपर ही खत्म हो जाती है। श्रमिकों, विकलांगों, गर्भवतियों, वृद्धों औऱ बच्चों के अधिकारों की वकालत भी बाबासाहेब ने ही की है। उनकी शख्सियत को किसी एक आयाम में समेट देना दरअसल अंबेडकर औऱ उनकी विचारधारा को सीमित करना है। सम्मान के नाम पर उन्हें भगवान बनाकर उनके विचारधारा को ख़त्म करने की कोशिश हो रही है। तमाम प्रपंच हो रहे उनके विचारों को खत्म करने के अलग-अलग रूपों में। अंबडेकर भगवान नहीं है, वो व्यक्ति से बढ़कर एक विचारधारा है। पूजने के फेर में नहीं, उन्हें पढ़ने के फेर में पड़िये।
-दीपाली तायडे
-दीपाली तायडे
चलिए कारवाँ आगे बढ़ाएं..........