'रईस' जैसी फिल्मों पर संघियों ने हड़बोंग क्यों मचाया, यही नहीं समझ में आ रहा है..! वैसे तो फिल्मों को देखने के मामले में मेरा दिमाग चूंकि फिरा हुआ है, इसलिए अमूमन जिस भी फिल्म को देखता हूं, उसमें शायद जबरन भी कुछ खोजता रहता हूं...!
तो 'रईस' फिल्म कैसी है, यह मुझे समझ में नहीं आया। जो कुछ बातें दर्ज कर सका अपने सिरफिरे दिमाग में, वे यह रहीं-
- गुजरात में शराब पर पाबंदी के बावजूद अगर हर जगह शराब मिल जाती है, तो इसके पीछे मुसलिम शराब माफिया है और 'मुसलिम बस्ती' के घर-घर में बनने वाले शराब हैं...!
- शराबबंदी के पक्ष में हिंदू नेता एकदम भाजपा-लुक में यात्रा निकालता है और एक मुसलमान शराब माफिया 'अपने इलाके' यानी मुसलिम इलाके से उसे नहीं गुजरने देता है और तलवार-टाइप हथियारों से एकदम दंगा-टाइप भयानक हमला कर देता है...! [याद कीजिए ऐसी आम खबरें, जिनमें यह बताया जाता है कि मुसलिम बस्ती से गुजरते झंडा जुलूस पर हमला.!]
- मुसलमान उत्तर प्रदेश से गुजरात जा रही ट्रेन पर हमला करके हिंदुओं को जला देता है...!
- मुसलमान आतंकी हमला टाइप सीरियल ब्लास्ट के लिए आरडीएक्स विस्फोटकों को चुपके से भेजता है..!
- मुसलमान 'अपनी दुनिया' टाइप सोसाइटी जैसा घेट्टो बनाता है... !
- एक ईमानदार हिंदू पुलिस अफसर उस मुसलमान माफिया को आखिरकार फर्जी मुठभेड़ में मार डालता है...!
- इसके अलावा, सनी लियोनी के सहारे 'लैला मैं लैला' थोपने के बावजूद किसी कूड़ा से कम नहीं लगा...!
बाकी और है क्या इस फिल्म में...! और अगर मैं इतना ही समझ सका तो इसी कम समझदारी के साथ कह सकता हूं कि यह फिल्म, इसकी कहानी और प्रस्तुति अंतिम तौर पर संघी एजेंडे को ही खाद-पानी देती है! यह मुसलिम समाज की छवि अपराध की दुनिया से जोड़ कर उसे स्टैबलिश करती है!
यह संघ का दीर्घकालिक एजेंडा है कि छवि से लेकर हकीकत तक हर जगह मुसलमानों को एक घेट्टो में कैद कर दिया जाए...। अब इस तरह की कहानियों के पीछे कौन खड़ा है या किसका कितना पैसा लग रहा है, मुझे यह सब नहीं पता...!
आप कहेंगे कि फिर मैंने महज मनोरंजन का मकसद पूरा करने वाली फिल्मों पर जबरन अपनी सिरफिरी दलीलें पेश कर दीं... लेकिन अब मेरा सिर ही जब फिर गया है तो क्या करें...!
(अरविन्द शेष)