-सीएसएसएस टीम
पिछले अंक से जारी...
सन 2016 में मोहर्रम और दुर्गा पूजा के एक ही दिन पड़ने के कारण सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुईं। जुलूसों पर पत्थरबाजी की गई और फिज़ा में तनाव घुला। कई आराधना स्थलों को अपवित्र किया गया और पवित्र प्रतीकों का अपमान किया गया।
उत्तरप्रदेश के देवबंद में 27 जुलाई को एक मंदिर में स्थापित मूर्तियां तोड़ दी गईं। इस कुकृत्य को अंजाम देने वाले एक मुस्लिम युवक को लोगों ने पकड़ लिया और उसकी पिटाई लगाने के बाद उसे पुलिस के हवाले कर दिया। पुलिस अधिकारियों का दावा है कि सादिक नाम का यह युवक मानसिक रूप से विक्षिप्त है। इसकी अगली रात, सादिक के समुदाय के एक धार्मिक स्थल के मुख्य द्वार को तोड़ दिया गया। परंतु पुलिस ने तुरतफुरत कार्यवाही करते हुए रातों-रात दरवाजे की मरम्मत करवा दी और स्थिति को बिगड़ने से बचा लिया। कर्नाटक के शाहबाद में शिवा नाम के एक लड़के ने मुस्लिम समुदाय के संबंध में एक भड़काऊ टिप्पणी फेसबुक पर पोस्ट की। उसे तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन दशहरे से संबंधित एक होर्डिंग को तोड़ दिया गया। रामसेने और विहिप ने इस घटना का इस्तेमाल सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए करना चाहा। बाद में पता यह चला कि एक हिन्दू युवक ने ही यह काम किया था। पुलिस ने इस सिलसिले में पांच हिन्दुओं और एक मुसलमान को गिरफ्तार कर हालात को और बिगड़ने से रोका।
त्योहारों पर निकलने वाले जुलूस और सोशल मीडिया कई सांप्रदायिक घटनाओं के कारक बने। पैगम्बर मोहम्मद या हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित करने वाली टिप्पणियां फेसबुक और वाट्सएप के ज़रिए प्रसारित की गईं। सोशल मीडिया पर भड़काऊ पोस्टों के कारण सांप्रदायिक हिंसा की कम से कम सात घटनाएं हुईं। इस तरह की एक घटना में मध्यप्रदेश के सागर में आरएसएस के एक कार्यकर्ता के भतीजे को आपत्तिजनक टिप्पणी पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। पश्चिम बंगाल के इलामबाज़ार में हुई हिंसा में एक मुस्लिम युवक ने अपनी जान गंवाई और तीन घायल हुए। दुर्गा पूजा, मोहर्रम, गणेश उत्सव, हनुमान जयंती और ईद-उल-मिलादुन्नबी के अवसरों पर सांप्रदायिक हिंसा की 21 घटनाएं हुईं। त्योहारों पर सांप्रदायिक हिंसा के मामले में उत्तरप्रदेश (8 घटनाएं) सबसे आगे रहा। इसके बाद बिहार (4), झारखंड, (3) और महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल व कर्नाटक (1-1) थे।
सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में जानोमाल का सबसे अधिक नुकसान मुसलमानों का हुआ। पुलिस द्वारा की गई कार्यवाहियों के भी सबसे अधिक शिकार मुसलमान बने। कुल 62 घटनाओं में से 12 के संबंध में गिरफ्तार लोगों का धर्म के आधार पर वर्गीकरण उपलब्ध है। इन 12 घटनाओं के सिलसिले में 178 मुसलमानों और 75 हिन्दुओं को गिरफ्तार किया गया।
सांप्रदायिक हिंसा की चार घटनाओं के संबंध में मृत लोगों का धार्मिक आधार पर वर्गीकरण उपलब्ध है। मरने वालों में से सात मुसलमान और पांच हिन्दू थे। इसी तरह, पांच घटनाओं में 46 मुसलमान और 11 हिन्दू घायल हुए। तीन घटनाओं के मामले में मकानों पर हमलों के धर्म के आधार पर वर्गीकृत आंकड़े उपलब्ध हैं। जिन घरों पर हमले किए गए उनमें से एक हिन्दू का और 67 मुसलमानों के थे। इसी तरह, जिन तीन घटनाओं के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके अनुसार हिन्दुओं की तीन और मुसलमानों की 56 दुकानों को नुकसान पहुंचाया गया। ये आंकड़े कुछ अजीब से लगते हैं क्योंकि गिरफ्तारियों की संख्या को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि सांप्रदायिक हिंसा करने वालों में से अधिकांश मुसलमान थे। अगर यह सच है तो हिंसा के शिकार लोगों में हिन्दुओं का बहुमत होना था। परंतु मृतकों और घायलों और मकानों व दुकानों पर हमलों के आंकड़ों से ऐसा लगता है कि हिंसा का सबसे बड़ा शिकार भी मुसलमान बने। इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना गलत नहीं होगा कि सांप्रदायिक हिंसा में न केवल मुसलमान सबसे अधिक नुकसान उठाते हैं वरन हिंसा के बाद पुलिस जो कार्यवाही करती है, उसमें भी मुसलमान ही निशाने पर रहते हैं।
जिन 12 राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुईं, उनमें से छह में भाजपा का शासन था, एक में कांग्रेस का और पांच में अन्य दलों का। सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में से 40.3 प्रतिशत भाजपा-शासित राज्यों में, 4.8 प्रतिशत कांग्रेस-शासित राज्यों में और 54.8 प्रतिशत उन राज्यों में हुईं, जहां कांग्रेस या भाजपा के अतिरिक्त किसी तीसरे दल का शासन था।
आंकड़ों से यह पता चलता है कि भाजपा-शासित राज्यों में ऐसी घटनाएं भारी संख्या में हुईं, जिनमें कोई मौत तो नहीं हुई परंतु बड़ी संख्या में लोग घायल हुए। सांप्रदायिक हिंसा की 25 घटनाओं में भाजपा शासित राज्यों में 446 लोग घायल हुए। चूंकि इन घटनाओं में किसी व्यक्ति की मृत्यु नहीं हुई इसलिए न तो मीडिया ने इनकी ओर ध्यान दिया और ना ही अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने। परंतु इस तरह की छुटपुट घटनाओं से मुस्लिम समुदाय का भयाक्रांत हो जाना स्वाभाविक है। इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि दंगे भड़काने वालों को यह विश्वास रहता है कि उनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होगी।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, कांग्रेस-शासित कर्नाटक के शाहबाद में पुलिस हिंसा को बड़ा रूप ग्रहण करने से रोकने में सफल रही। मीडिया रपटों के अनुसार, कर्नाटक में सन 2015 में सांप्रदायिक हिंसा की तीन घटनाएं हुई थीं और 2016 में भी उनकी संख्या यही बनी रही। स्पष्टतः इस राज्य में सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि नहीं हुई।
परंतु इस मामले में गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेस सरकारों की भूमिका बहुत अच्छी नहीं रही है। उत्तरप्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार, राज्य में सांप्रदायिक हिंसा रोकने में असफल रही। जबकि, जैसा कि मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद हुए 2014 के आमचुनाव के नतीजों से जाहिर है, सांप्रदायिक हिंसा से भाजपा को ही फायदा होता है। इस तथ्य के बावजूद उत्तरप्रदेश की सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में प्रभावी भूमिका क्यों नहीं निभाई यह समझना मुश्किल है। समाजवादी पार्टी की सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा में शामिल लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया और पीड़ितों को मुआवज़ा भी दिया। परंतु वह हिंसा को रोकने में असफल रही। केवल एक मामले में शाहजहांपुर में सांप्रदायिक हिंसा की एक घटना पुलिस की सक्रियता के कारण रोकी जा सकी।
ममता बेनर्जी के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल की सरकार भी सांप्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाने में असफल रही। इस राज्य के बढ़ते सांप्रदायिकीकरण के चलते वहां के हिन्दुओं के लिए हिन्दू के रूप में उनकी पहचान बंगाली के रूप में उनकी पहचान से अधिक महत्वपूर्ण बन गई है। सांप्रदायिक हिंसा को रोक पाने में असफलता या तो सरकार की अनिच्छा अथवा उसकी असमर्थता की ओर संकेत करती है। परंतु ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि कोई सरकार यदि चाहे तो वह सांप्रदायिक हिंसा को नहीं रोक सकती। आखिर सरकार के पास पुलिस होती है और कानून की ताकत भी। अगर पुलिस चाहे तो कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह गैर-कानूनी काम या हिंसा नहीं कर सकता।
हमारे देश में सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में पुलिस अक्सर स्वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर पाती। ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य सरकारें ही यह तय करती हैं कि पुलिस अधिकारियों की कहां पदस्थापना कहां की जाए। इसके अतिरिक्त, पुलिस बल में भर्ती और पदोन्नति आदि पर भी राज्य सरकारों का पूर्ण नियंत्रण रहता है। जाहिर है ऐसी स्थिति में पुलिस अधिकारी निष्पक्षतापूर्वक काम नहीं कर पाते। सांप्रदायिक हिंसा या दंगों के दौरान पुलिस पर राजनैतिक दबाव रहता है और वह उसी के अनुरूप कार्यवाही करती है। पुलिस की भूमिका दंगों के पहले, दंगों के दौरान और उनके बाद होती है। हम यहां विभिन्न पार्टियों द्वारा शासित राज्यों में पुलिस की भूमिका की विवेचना कर रहे हैं।
जहां तक दंगें शुरू हो जाने के बाद उन पर नियंत्रण का प्रश्न है, कर्नाटक को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में पुलिस की भूमिका असंतोषजनक रही। भाजपा-शासित राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा की पांच घटनाओं के संबंध में धर्मवार आंकड़े उपलब्ध हैं। भाजपा-शासित राज्यों में जिन 189 लोगों को गिरफ्तार किया गया उनमें से 18 हिन्दू और 171 मुसलमान थे। यह इस तथ्य के बावजूद कि अधिकांश पीड़ित मुसलमान थे। गैर-कांग्रेस व गैर-भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों में गिरफ्तार व्यक्तियों के संबंध में धर्मवार आंकड़े केवल छह घटनाओं के संदर्भ में उपलब्ध हैं। इन मामलों में कुल 58 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से 52 हिन्दू और 6 मुसलमान थे। इन मामलों में भी पीड़ित समुदाय मुसलमान ही था।
सांप्रदायिक हिंसा में कुल मिलाकर 70 पुलिसकर्मी घायल हुए। इनमें से 12 महाराष्ट्र के उमरखेड़ और इतनी ही संख्या में इसी राज्य के ननदुरबार में हुई हिंसा की घटनाओं में घायल हुए। उत्तरप्रदेश के खोड़ारापुर में 24 पुलिसकर्मी घायल हुए। इस तरह, भाजपा-शासित महाराष्ट्र में घायल होने वाली पुलिसकर्मियों की संख्या सबसे अधिक थी।
देश भर में कुल 179 मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 156 महाराष्ट्र (बदलापुर 21, उमरखेड़ 63 और मलकापुर 72) के थे। उमरखेड़ में हुई सांप्रदायिक हिंसा में 25 मुसलमान घायल हुए। घायल होने वालों में एक भी हिन्दू नहीं था। इस घटना में किसी की मृत्यु नहीं हुई। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)